नई पुस्तकें >> कथा विराट कथा विराटसुधाकर अदीब
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बँटवारा तो होना था। अवश्यम्भावी था। जब दिल बँट गए मजहब और धर्म के नाम पर तो कौन कब तक किसे अलग होने से रोक सकता था ? दिलों का बँटवारा अब धरती के नक्शे पर उतरना था। भारत का नक्शा, जो सिर्फ एक कागज का टुकडा होते हुए भी कागज नहीं था। वह तो एक ऐसा अदृश्य संसार था जिसमें हजारों-सैकडों सालों से भारतवासियों का सांस्कृतिक प्रवाह, मनुष्यता का जीवन-संघर्ष, कोटि-कोटि बलिदान, असंख्य हास्य-रूदन, नृत्य-गान और अट्टहास-कराहों का अतीत और वर्तमान समाया हुआ था। उसमें हल जोतते किसान थे। चूल्हे पर रोटी सेंकती स्त्रियाँ थीं। भेड़-बकरियां-गउए चराते बालक-वृन्द थे। स्कूल जाते अध्यापक, गोद में दुधमुँहे बच्चे खिलाती दादी-नानियाँ थी, दुकान पर माल तोलता बनिया था, काले कोट पहने अदालतों में बहस करते वकील थे, ठेला खींचते मजदूर थे, नोट गिनते लाला जी थे, हकीम साहब थे, मौलवी थे, पंडित थे, चमड़ा और लकड़ी के कारीगर थे, एक-दूसरे से छिप-छिपकर मिलते प्रेमी-युगल थे... एक पूरा हंसता-खेलता अपने जीवन-मरण में डूबा एक भरा-पूरा कलरव करता संसार था , जिसे अब हिन्दू-मुस्लमान-सिख के नाम पर एक-दूसरे से अलग किया जा रहा था। उसके लिए ‘बाउंड्री’ अर्थात-एक निर्मम विभाजन-रेखा खींची जानी अनिवार्य थी।…
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